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प्रताप : अखबार नहीं अभियान था ...

आप मे से बहुत से लोगों ने प्रताप अखबार का नाम तो सुना होगा , लेकिन उसके बारे में अधिक जानते नही होंगे। इसी लिए ये लेख उपरोक्त लेख में प्रताप के बारे में पूर्ण जानकारी देने का प्रयास किया है । इसके बाद भी यदि आपका कोई सवाल हो तो आप मुझ से कर सकते हैं . मैं यथा संभव उसका जवाब देने का प्रयास करूँगा ।

आजादी की जंग में जान फूँकने के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी ने‘ 9 नवम्बर 1913 को कानपुर से प्रताप हिंदी साप्ताहिक पत्र 'प्रताप' का प्रकाशन आरंभ किया था। विधार्थी जी ने महाराणा प्रताप के उच्च त्याग और स्वातंत्र्य-प्रेम, आत्म गौरव से प्रेरित होकर अपने पत्र का नाम ‘प्रताप’ रखा था। ‘प्रताप’ के प्रथम अंक में मुखपृष्ठ पर , आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी द्धारा यह अमर पंक्तियां लिखी गयी थी -
' जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है,
वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान है।’

प्रताप का का कुल बजट, चार भागीदारों गणेशशंकर विद्यार्थी, नारायण प्रसाद अरोड़ा, शिवनारायण मिश्र और यशोदानंदन के सौ-सौ रुपए के हिस्से जोड़कर उतना ही था, जितने में आज दो किलो मूंगफली आती है। संपादक गणेशशंकर विद्यार्थी ही थे। अखबार की शुरुआत टेब्लॉयड से बड़े आकार में 16 पृष्ठों से हुई। उस समय ‘प्रताप’ का कार्यालय शहर के एक छोर पर पीली कोठी में रखा गया था। सोलह अंकों के बाद, छपाई का भुगतान समय से न हो पाने के कारण यह व्यवस्था रुक गई। यशोदानंदन ने अपना हिस्सा भी अखबार से वापस ले लिया। लगभग साल भर बाद नारायण प्रसाद अरोड़ा भी अपना निजी अखबार निकालने के इरादे से अलग हो गए। बाकी बचे विद्यार्थी जी और शिवनारायणजी। उनका तो एक ही संकल्प था ‘प्रताप’।

विद्यार्थी जी के पास पैसा नहीं था ,अपना प्रेस नहीं था , दूसरे प्रेस वाले छापने को तैयार नहीं , पर विद्यार्थी जी इससे जरा भी विचलित न हुए। उन्होंने जल्द ही एक छोटा-सा अपना प्रेस भी खड़ा कर लिया और प्रेस का कार्यालय भी पीली कोठी से उठकर फीलखाना वाली बिल्डिंग में आ गया, जो ‘प्रताप’ की अंतिम सांस (1964) तक उसका प्रकाशन-स्थल रहा और इसे ‘प्रताप प्रेस’ के नाम से जाना जाता रहा।

वैसे था वह भी किराए पर ही। इन परिवर्तनों के बावजूद ‘प्रताप’ की आर्थिक दशा में कोई सुधार नहीं हुआ। कुर्सी मेज खरीदने की सामर्थ्य न थी, दरी और चटाई पर बैठकर संपादन, प्रबंधन और डिस्पैच के सब काम अंजाम दिए जाते। संपादक, मैनेजर से लेकर चपरासी और दफ्तरी तक का काम गणेशजी और मिश्रजी को स्वयं करना पड़ता था.

गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप के प्रथम अंक में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि उनकी पत्रकारिता राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक आर्थिक क्रांति, राष्ट्रीय गौरव, साहित्यिक सांस्कृतिक विरासत के लिए ही समर्पित है।उन्होंने ‘प्रताप’ के माध्यम से न केवल क्रान्ति का नया बिगुल फूँका था और बल्कि इसे एक ऐसा समाचार पत्र बना दिया, जो हिन्दी पत्रकारिता की आस्था और शक्ति का प्रतीक बन गया। इसमें देश के हर हिस्से में हो रहे अत्याचारों के बारे में जानकारियाँ प्रकाशित होती थीं, जिन्हे पढकर लोगों में आक्रोश भड़कने लगा था और वे ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए और भी उत्साहित हो उठे थे. प्रताप की आक्रामकता को देखते हुए अँग्रेज प्रशासन ने इसके लेखको व संपादकों को तरह-तरह की प्रताड़नाएँ दी, लेकिन यह पत्र अपने लक्ष्य पर डटा रहा।

प्रताप की पहचान लगातार अंग्रेजों के विरोध में लिखने से सरकार विरोधी बन गई थी और कानपुर के तत्कालीन मजिस्ट्रेट मि. स्ट्राइफ ने अपने हुक्मनामे में प्रताप को ‘बदनाम पत्र’ की संज्ञा देकर जमानत की राशि जब्त कर ली। विद्यार्थी जी की कलम ने स्वाधीनता आन्दोलन की क्रांति को ही प्रखर नहीं किया, बल्कि पूंजीवाद और सामन्तवाद की जनविरोधी नीतियों का भी अपनी पत्रकारिता के माध्यम से विरोध किया।विद्यार्थी जी को ‘प्रताप‘ में प्रकाशित समाचारो के कारण ही १९२१ से १९३१ तक पाँच बार जेल जाना पड़ा , विद्यार्थी जी ने सदैव निर्भीक एवं निष्पक्ष पत्रकारिता की। उनके पास पैसा और समुचित संसाधन नहीं थे, परन्तु उनके भीतर एक ऐसी असीम ऊर्जा थी, जिसका संचरण स्वतंत्रता प्राप्ति के निमित्त होता था। ‘प्रताप‘ प्रेस के निकट तहखाने में निर्मित पुस्तकालय में सभी जब्तशुदा क्रान्तिकारी साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाएं उपलब्ध थी। यह ‘प्रताप’ ही था जिसने दक्षिण अफ्रीका से विजयी होकर लौटे तथा भारत के लिये उस समय तक अनजान महात्मा गाँधी की महत्ता को समझा और चम्पारण-सत्याग्रह की नियमित रिपोर्टिंग कर राष्ट्र को गाँधी जी जैसे व्यक्तित्व से परिचित कराया। चौरी-चौरा तथा काकोरी काण्ड के दौरान भी विद्यार्थी जी ‘प्रताप’ के माध्यम से नियमित लिखते रहे। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित सुप्रसिद्ध देशभक्ति कविता पुष्प की अभिलाषा प्रताप अखबार में ही मई १९२२ में प्रकाशित हुई। बालकृष्ण शर्मा नवीन, सोहन लाल द्विवेदी, सनेहीजी, इत्यादि ने प्रताप के माध्यम से अपनी देशभक्ति को मुखर आवाज दी।

प्रताप में ना केवल क्रान्तिकारी लेखो का प्रकाशन होता था , बल्कि यह क्रांतिकारियों की अभेद्य शरणस्थली भी था , प्रेस की अनूठी बनावट ही कुछ ऐसी थी कि जिसमें छिपकर रहा जा सकता था तथा फिर सघन बस्ती में तलाशी होने पर एक मकान से दूसरे मकान की छत पर आसानी से जाया जा सकता था। बनारस षडयंत्र केस के फरार अभियुक्त सुरेश चन्द्र भट्टाचार्य प्रताप अखबार में उपसम्पादक थे। बाद में भट्टाचार्य और प्रताप अखबार से ही जुड़े पं. राम दुलारे त्रिपाठी को काकोरी काण्ड में सजा मिली थी । अमर शहीद भगत सिंह ने अपने फरारी के दिनों में ‘प्रताप‘ अखबार में बलवन्त सिंह के छद्म नाम से लगभग ढाई वर्ष तक पत्रकारिता का कार्य किया। उन्होंने दरियागंज दिल्ली में हुये दंगे का समाचार एकत्र करने के लिए दिल्ली की यात्रा करने के बाद ‘प्रताप’ के लिए सचिन दा के सहयोग से दो कालम का समाचार तैयार किया था । चन्द्रशेखर आजाद से भगत सिंह की मुलाकात विद्यार्थी जी ने ही कानपुर में करायी थी, फिर तो शिव वर्मा सहित तमाम क्रान्तिकारी जुड़ते गये। यह विद्यार्थी जी ही थे कि जेल में भेंट करके क्रान्तिकारी राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा छिपाकर लाये तथा उसे ‘प्रताप‘ प्रेस के माध्यम से प्रकाशित करवाया। १९१६ में लखनऊ कांग्रेस के बाद महात्मा गाँधी और लोकमान्य तिलक इक्के पर बैठकर प्रताप प्रेस आये एवं वहाँ दो दिन रहे थे ।
भगतसिंह और उनके साथियों की शहादत के उपरांत २५ मार्च १९३१ को चौबे गोला कानपुर में भीषण दंगे में घिरे हुए परिवारों की रक्षा के लिए विद्यार्थी जी ने अपने जीवन को बलिदान कर दिया था। खून के प्यासे दंगाइयों से घिरे होने पर भी विद्यार्थी जी ने अंत में जीवटता पूर्वक यह कहा था- ‘ यदि मेरे खून से ही सींचे जाने से हिन्दू-मुस्लिम एकता का पौधा बढ़ सके और तुम्हारे खून की प्यास बुझ सके, तो मेरा खून कर डालो।' उनके निधन पर महात्मा गांधी ने अपनी पत्रिका ‘यंग इंडिया’ में लिखा था ‘ उनका खून हिन्दु-मुसलमानों के दिलों को जोड़ने के लिए सीमेंट बनेगा।'

विद्यार्थी जी के शहीद होने के बाद भी 1965 तक “प्रताप “ प्रकाशित होता रहा . लेकिन मैनेजमेंट की गलत नीतिया और जल्द से जल्द प्रताप को खत्म करने की नियत ने प्रताप के प्रताप का अंत कर दिया .

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