
क्यों विधायकों के दल बदल को मास्टर स्ट्रोक के तौर पर देखा जाता है?
लोकसभा चुनावों से पहले राज्यसभा चुनावों को लेकर पिछले कई दिनों से चल रही गहमा-गहमी के बीच 3 राज्यों की 15 सीटों पर वोटिंग के बाद जिस प्रकार खेल खेला गया, उसके बाद कई तरह के सवाल खडे होने लगे हैं। एक तरफ जहाँ लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कही जाने वाली मीडिया इसको बड़ा मास्टर स्ट्रोक बता रही है, सत्ता पक्ष की बड़ी जीत के तौर पर दिखा रही है तो वहीं दूसरी तरफ इस तरह के खेल पर कोई सवाल पूछने वाला नहीं है। हाँ बिल्कुल उसमे विपक्षी दलों की कमजोरी से ही इस तरह की घटना मुमकिन हो पाई है लेकिन फिर वही सवाल उठता है कि क्या ये सही है?
राज्यसभा की 15 सीटों के लिए हुए चुनाव में भाजपा ने एक बार फिर अपना वर्चस्व कायम कर लिया। हालांकि यह वर्चस्व किस तरह भाजपा ने हासिल किया है, वह एक गंभीर सवाल बन चुका है। जिस प्रकार उत्तरप्रदेश और हिमाचल प्रदेश दोनों जगह भाजपा ने क्रास वोटिंग करवाई, यानी अपने विधायकों के अलावा दूसरे दलों के विधायकों को किसी न किसी तरह मजबूर किया कि वे उसके उम्मीदवार को वोट दें। यह मजबूरी धन यानी रिश्वत से उपजी है, या किसी और किस्म के दबाव के कारण बनी है, या उन विधायकों का अपनी ही पार्टी से कोई नाराजगी थी, जिसको वह खुलकर बता नहीं पाए इसका खुलासा कभी नहीं हो सकेगा। क्योंकि भाजपा भी अब इस बात को जानती है कि लोग उसकी जीत की तारीफ करेंगे, पत्रकार इस बात को मास्टर स्ट्रोक बताएंगे कि कैसे हारी हुई बाजी को भाजपा ने अपने पक्ष में कर लिया और इस बात पर कोई सवाल नहीं करेगा कि राजनीति में बढ़ चुके इस गलत चलन को स्वीकार क्यों किया जा रहा है?
कभी कोई मीडिया चैनल या पत्रकार यह सवाल नहीं खड़ा करता है कि आखिर इस तरह के चुनाव के वक़्त या फिर किसी राज्य में सरकार बनाने व बहुमत साबित करने के लिए फ्लोर टेस्ट के दौरान ही क्यों विधायकों की अंतरात्मा जागती है? आखिर उसी समय ही क्यों अपनी पार्टी की बुराइयां नज़र आती है.... ये गंभीर मसला है लेकिन इस पर कोई भी बात नहीं करना चाहता है।
हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है, उसके पास स्पष्ट बहुमत है, फिर भी भाजपा 9 गै़रभाजपाई विधायकों से अपने पक्ष में वोट डलवाने में कामयाब हो गई। यह निश्चित ही कांग्रेस की कमजोरी है कि वह अपने विधायकों को एकजुट नहीं रख पाई। कांग्रेस की ख़ासियत शायद यही बन गई है कि वह अपनी ग़लतियों से कोई सबक नहीं लेती। दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है, ऐसे मुहावरों पर कांग्रेस का कोई यकीन ही नहीं है। उसे ख़तरों के खिलाड़ी बनने में शायद ज्यादा मज़ा आता है, फिर चाहे सत्ता की बाजी ही दांव पर क्यों न लग जाए।
मध्यप्रदेश, कर्नाटक, बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस ने भाजपा के आपरेशन लोटस के कारण सत्ता गंवा दी, झारखंड में भी ऐसा होने का खतरा था, जो टल गया। कांग्रेस चाहती तो अपने अनुभवों से सबक ले सकती थी कि अगर भाजपा ने हिमाचल प्रदेश में महज 25 विधायकों के होने के बावजूद काग्रेस के राज्यसभा उम्मीदवार के सामने अपना उम्मीदवार खड़ा किया है, तो उसके इरादे नेक नहीं हो सकते। वह कोई न कोई कोशिश जरूर करेगी कि क्रास वोटिंग हो जाए। लेकिन कांग्रेस ने अनहोनी की अंदेशा होते हुए भी लापरवाही बरती। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू कहते रह गए कि अगर कोई बिका नहीं होगा तो हमारे 40 में से 40 वोट आएंगे। जबकि किसी के बिकने का इंतजार किए बिना मुख्यमंत्री सुक्खू कर्नाटक की कांग्रेस सरकार की तरह अपने एक-एक बोट पर नजर रखते तो आज इस हार और शर्मिंदगी से बच जाते।
भाजपा ने केवल हिमाचल प्रदेश ही नहीं, उत्तरप्रदेश में भी समाजवादी पार्टी के विधायकों को तोड़ कर जीत हासिल की है। यहां भी वही सवाल खड़ा होता है कि ज़ब बीजेपी के पास सिर्फ 7 राज्यसभा सीट जीतने के पर्याप्त सदस्य थे, ज़ब बीजेपी को आठवें राज्यसभा सीट जीतने के लिए 8 विधायकों की जरूरत थी तो फिर क्यों समाजवादी पार्टी ने वक़्त रहते इस खेल को रोकने की कोशिश नहीं की? अगर किसी भी प्रकार से कोशिश की गई होती तो समाजवादी पार्टी के 5 से 6 विधायक एक साथ क्रॉस वोटिंग के लिए नहीं जाते, इनमें कई विधायक अखिलेश यादव के बेहद करीबियों में से रहे हैं।
अब राज्यसभा में भाजपा के 97 और एनडीए के 117 सांसद हो गए हैं और 240 सीटों की राज्यसभा में 121 के बहुमत का आंकड़ा अब भाजपा से खास दूर नहीं रह गया है। अगर तीसरी बार भी भाजपा को केंद्र की सत्ता हासिल हो जाती है, तो फिर राज्यों को किसी भी तरह जीतने का उसका खेल चलता रहेगा और इसी तरह नगरीय निकायों से लेकर राज्यसभा तक हर जगह केवल भाजपा का राज होगा। सियासत के मौजूदा चलन को देखकर यह कोरी कल्पना भी नहीं कही जा सकती। अभी चंद दिनों पहले चंडीगढ़ मेयर चुनाव में भाजपा ने धांधली कर जीत हासिल की थी। सुप्रीम कोर्ट के दखल के कारण और सारा वाकया सीसीटीवी में कैद हो जाने के कारण धोखे से मिली इस जीत को गलत करार दिया गया। लेकिन राज्यसभा चुनावों में फिर से घोखे का खेल ही खेला गया है, लेकिन विडंबना है कि देश की मीडिया द्वारा इसे भाजपा के महान कारनामे की तरह पेश किया जा रहा है। कांग्रेस ने तो अपनी एक जीती हुई सीट इस चुनाव में गंवा दी है, लेकिन गौर से देखा जाए तो पूरा देश इसको एक दल के ताकत के तौर पर देख रहा है। हाँ बिलकुल कांग्रेस या विपक्षी दल को उसकी कमजोरियों और लापरवाही के लिए दोष दिया जा सकता है। मगर क्या सवाल भाजपा से भी नहीं किए जाने चाहिए कि आखिर जीत के लिए गलत तरीकों को अपना कर वह कौन सी परिपाटी इस देश में कायम करना चाहती है।
पिछले कई सालों में हमने यह देखा है कि राज्यों में जनता किसी अन्य दल को चुनती है, दूसरे दल के नेता को विधायक के तौर पर चुनती है लेकिन सरकार बीजेपी की बन जाती है। विधायको का दल बदल पिछले कुछ सालों में आम हो चुका है जनता रोज इस की खबरों को सुनने की आदी हो चुकी है। दल बदल का कानून बिलकुल है लेकिन ये भी सच्चाई है कि राज्य में जिसकी सरकार, उपचुनाव में उसकी जीत की संभावना भी उतनी ज्यादा होती है। पहले कर्नाटक फिर मध्य प्रदेश उसके जिस प्रकार महाराष्ट्र में एक के बाद एक विपक्षी दल की सरकार गिरी लेकिन मीडिया द्वारा इसको मास्टर स्ट्रोक के तौर पर दिखाया गया।
मीडिया का काम होता है कि सरकार की अच्छी नीतियों की सराहना करे वही सत्ता के संरक्षण में हो रहे गलत कार्यों पर उसे आईना दिखाए। एक जमाने में कहा जाता था कि मीडिया विपक्ष और जनता की आवाज होती है, कहा जाता था कि मीडिया ही असल विपक्ष होता है लेकिन मौजूदा समय में इसकी परिभाषा पूरी तरह से बदल दी गई है। क्या आपने देखा है कि सत्ता हथियाने के लिए विधायकों का दल बदल पर कभी मीडिया ने सत्ता पक्ष से सवाल किया? हाँ यह जरूर देखा होगा कि मीडिया सत्ता पक्ष से सवाल करने के बजाय उस पार्टी से सवाल जरूर करती है जिसके विधायक टूटकर दूसरे दल में सम्मिलित हुए हैं।
अगर ऐसा है तो फिर वह इस बात की गारंटी कैसे देगी कि उसके शासन में भ्रष्टाचार के लिए शून्य सहनशक्ति रहेगी। चंडीगढ़ से लेकर हिमाचल प्रदेश तक भाजपा ने जो सत्ता हथियाने का खेल रचा है, उसे अगर जनता की स्वीकृति मिल जाती है, देश में बड़ा बदलाव हो रहा है, जिसका असर हर किसी पर पड़ सकता है। ऐसे समाज में अब अपराधी से नहीं, पीड़ित से सवाल-जवाब होने लगेंगे और जरूरी नहीं कि पीड़ित हर बार कांग्रेस या विपक्षी दल ही होगी, राजनीति के अलावा अन्य तबकों में भी यह रोग अपना असर दिखाएगा। इस रोग का इलाज करना है तो फिर गलत तरीकों पर सवाल उठाने शुरु करने होंगे।