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रुद्राभिषेक पाठ एवं इसके भेद

पूरा संसार अपितु पाताल से लेकर मोक्ष तक जिस अक्षर की सीमा नहीं, ब्रह्मा आदि देवता भी जिस अक्षर का सार न पा सके, उस आदि अनादि से रहित निर्गुण स्वरूप ॐ के स्वरूप में विराजमान जो अद्वतीय शक्ति भूतभावन कालों के भी काल गंगाधर भगवान महादेव को प्रणाम करते हैं ।

अपितु शास्त्रों और पुराणों में पूजन के कई प्रकार बताए गए हैं,  लेकिन जब हम शिवलिंग स्वरूप महादेव का अभिषेक करते हैं तो उस जैसा पुण्य अश्वमेघ जैसे यज्ञों से भी प्राप्त नहीं होता। 

स्वयं सृष्टि कर्ता ब्रह्मा ने भी कहा है कि, 'जब हम अभिषेक करते हैं तो स्वयं महादेव साक्षात् उस अभिषेक को ग्रहण करने लगते हैं। संसार में ऐसी कोई वस्तु, कोई भी वैभव, कोई भी सुख, ऐसी कोई भी वास्तु या पदार्थ नहीं है जो हमें अभिषेक से प्राप्त न हो सके। वैसे तो अभिषेक कई प्रकार से बताये गये है । लेकिन मुख्य पांच ही प्रकार हैं— ! 

(1) रूपक या षडंग पाठ—रुद्र के छह अंग कहे गए हैं। इन छह अंग का यथा विधि पाठ षडंग पाठ कहा गया है।

शिव कल्प सूक्त— प्रथम हृदय रूपी अंग है 

पुरुष सूक्त👉— द्वितीय ​सिर रूपी अंग है ।

उत्तरनारायण सूक्त👉— शिखा है।

अप्रतिरथ सूक्त👉— कवचरूप चतुर्थ अंग है ।

मैत्सुक्त—👉 नेत्र रूप पंचम अंग कहा गया है ।

शतरुद्रिय—👉 अस्तरूप षष्ठ अंग कहा गया है।

इस प्रकार - सम्पूर्ण रुद्राष्टाध्यायी के दस अध्यायों का षडंग रूपक पाठ कहलाता है षडंग पाठ में विशेष बात है कि इसमें आठवें अध्याय के साथ पांचवें अध्याय की आवृति नहीं  होती है कर्मकाण्डी भाषा में इसे ही नमक-चमक से अभिषेक करना कहा जाता है। 

(2) रुद्री या एकादशिनी - रुद्राध्याय की ग्यारह आवृति को रुद्री या एकादिशिनी कहते हैं। रुद्रों की संख्या ग्यारह होने के कारण ग्यारह अनुवाद में विभक्त किया गया है।

(3) लघुरुद्र- एकादशिनी रुद्री की ग्यारह आवृत्तियों के पाठ को लघुरुद्र पाठ कहा गया है।

यह लघु रुद्र अनुष्ठान एक दिन में ग्यारह ब्राह्मणों का वरण करके एक साथ संपन्न किया जा सकता है तथा एक ब्राह्मण द्वारा अथवा स्वयं ग्यारह दिनों तक एक एकादशिनी पाठ नित्य करने पर भी लघु रुद्र अनुष्ठान संपन्न होते हैं।

(4) महारुद्र -- लघु रुद्र की ग्यारह आवृति अर्थात एकादशिनी रुद्री की 121 आवृति पाठ होने पर महारुद्र अनुष्ठान होता है । यह पाठ ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा 11 दिन तक कराया जाता है। 

(5) अतिरुद्र - महारुद्र की 11 आवृति अर्थात एकादिशिनी रुद्री की 1331 आवृति पाठ होने से अतिरुद्र अनुष्ठान संपन्न होता है ये 

(1)अनुष्ठात्मक 
(2) अभिषेकात्मक 
(3) हवनात्मक , 

तीनो प्रकार से किये जा सकते हैं। शास्त्रों में इन अनुष्ठानों का अत्यधिक फल है व तीनोंं का फल समान है। 

रुद्राष्टाध्यायी के प्रत्येक अध्याय मेँ - प्रथमाध्याय का प्रथम मन्त्र "गणानां त्वा गणपति गुम हवामहे " बहुत ही प्रसिद्ध है । यह मन्त्र ब्रह्मणस्पति के लिए भी प्रयुक्त होता है।

द्वितीय एवं तृतीय मन्त्र मे गायत्री आदि वैदिक छन्दोँं तथा छन्दों में प्रयुक्त चरणों का उल्लेख है। पाँचवें मन्त्र "यज्जाग्रतो से सुषारथि" पर्यन्त का मन्त्रसमूह शिवसंकल्पसूक्त कहलाता है। इन मन्त्रोँं का देवता "मन" है। इन मन्त्रों में मन की विशेषताएँ वर्णित हैँ। परम्परानुसार यह अध्याय गणेश जी का है।

द्वितीयाध्याय में  सहस्रशीर्षा पुरुषः से यज्ञेन यज्ञमय तक 16 मन्त्र पुरुषसूक्त से हैं, इनके नारायण ऋषि एवं विराट पुरुष देवता हैं। 17 वें  मन्त्र अद्भ्यः सम्भृतः से श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च ये छह मन्त्र उत्तरनारायणसूक्त रूप में प्रसिद्ध है।
द्वितीयाध्याय भगवान विष्णु का माना गया है।

तृतीयाध्याय के देवता देवराज इन्द्र हैं  तथा अप्रतिरथ सूक्त के रूप मे प्रसिद्ध है। कुछ विद्वान आशुः शिशानः से अमीषाज्चित्तम् पर्यन्त द्वादश मन्त्रों  को स्वीकारते हैं तो कुछ विद्वान अवसृष्टा से मर्माणि ते पर्यन्त 5 मन्त्रों का भी समावेश करते हैं। इन मन्त्रों  के ऋषि अप्रतिरथ है। इन मन्त्रों द्वारा इन्द्र की उपासना द्वारा शत्रुओं, स्पर्शाधकों का नाश होता है।

प्रथम मन्त्र "ऊँ आशुः शिशानो .... का अर्थ देखेँ त्वरा से गति करके शत्रुओं  का नाश करने वाला, भयंकर वृषभ की तरह, सामना करने वाले प्राणियोँ को क्षुब्ध करके नाश करने वाला। मेघ की तरह गर्जना करने वाला। शत्रुओं का आवाहन करने वाला, अति सावधान, अद्वितीय वीर, एकाकी पराक्रमी, देवराज इन्द्र शतशः सेनाओ पर विजय प्राप्त करता है।

चतुर्थाध्याय में सप्तदश मन्त्र हैं,  जो मैत्रसूक्त के रूप मे प्रसिद्ध है। इन मन्त्रों में भगवान सूर्य की स्तुति है " ऊँ आकृष्णेन रजसा " में भुवनभास्कर का मनोरम वर्णन है। यह अध्याय सूर्यनारायण का है ।

पंचमाध्याय मे 66 मन्त्र हैं। यह अध्याय प्रधान है, इसे शतरुद्रिय कहते हैं।
"शतसंख्यात रुद्रदेवता अस्येति शतरुद्रियम्। इन मन्त्रों में  रुद्र के शतशः रूप वर्णित है। कैवल्योपनिषद मे कहा गया है कि शतरुद्रिय का अध्ययन से मनुष्य अनेक पातकों से मुक्त होकर पवित्र होता है। इसके देवता महारुद्र शिव है। 

षष्ठाध्याय को महच्छिर के रूप मेँ माना जाता है। प्रथम मन्त्र में सोम देवता का वर्णन है। प्रसिद्ध महामृत्युञ्जय मन्त्र "ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे" इसी अध्याय में है। इसके देवता चन्द्रदेव हैं।

सप्तमाध्याय को जटा कहा जाता है । उग्रश्चभीमश्च मन्त्र मे मरुत् देवता का वर्णन है। इसके देवता वायुदेव हैं।

अष्टमाध्याय को चमकाध्याय कहा जाता है । इसमे 29 मन्त्र है। प्रत्येक मन्त्र मे "च "कार एवं "मे" का बाहुल्य होने से कदाचित चमकाध्याय अभिधान रखा गया है । इसके ऋषि "देव"स्वयं है तथा देवता अग्नि है। प्रत्येक मन्त्र के अन्त मे यज्ञेन कल्पन्ताम् पद आता है।

रुद्री के उपसंहार मे "ऋचं वाचं प्रपद्ये " इत्यादि 24 मन्त्र शान्तयाध्याय के रुप मे एवं "स्वस्ति न इन्द्रो " इत्यादि 12 मन्त्र स्वस्ति प्रार्थना के रुप मे प्रसिद्ध है। 

रुद्राभिषेक प्रयुक्त होने वाले प्रशस्त द्रव्य व उनका फल 
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1. जलसे रुद्राभिषेक -- वृष्टि होती है 

2. कुशोदक जल से अभिषेक-- समस्त प्रकार की व्याधि की शांति 

3. दही से अभिषेक -- पशु प्राप्ति होती है 

4. इक्षु रस से अभिषेक-- लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए 

5. मधु (शहद) से अभिषेक-- धन प्राप्ति के लिए यक्ष्मा रोग (तपेदिक) से निजात मिलती है।

6. घृत से अभिषेक व तीर्थ जल से भी -- मोक्ष प्राप्ति के लिए।

7. दूध से अभिषेक -- प्रमेह रोग के विनाश के लिए -पुत्र प्राप्त होता है ।

8. जल की की धारा भगवान शिव को अति प्रिय है।  अत: ज्वर के कोपों को शांत करने के लिए जल धारा धरासे अभिषेक करना चाहिए।

9. सरसों के तेल से अभिषेक करने से शत्रु का विनाश होता है। यह अभिषेक विवाद मुकदमे सम्पति विवाद, न्यायालय में विवाद को दूर करता है।

10.शक्कर मिले जल से अभिषेक करने से पुत्र की प्राप्ति होती है ।

11. इतर मिले जल से अभिषेक करने से शरीर की बीमारी नष्ट होती है ।

12. दूध से मिले काले तिल से अभिषेक करने से भगवन शिव का आधार स्नान कराने से सा रोग व शत्रु पर विजय प्राप्त होती है ।

13.समस्त प्रकार के प्राकृतिक रसों से अभिषेक हो सकता है ।

सार --उपयुक्त द्रव्यों से महालिंग का अभिषेक पर भगवान शिव अत्यंत प्रसन्न होकर भक्तों की  कामनाओं की पूर्ति करते हैं  ।

अत: भक्तों को यजुर्वेद विधान से रुद्रों का अभिषेक करना चाहिए।

विशेष बात :- रुद्राध्याय के केवल पाठ अथवा जप से ही सभी कामनाओं की पूर्ति होती है। 

रूद्र का पाठ या अभिषेक करने या कराने वाला महापातक रूपी पंजर से मुक्त होकर सम्यक ज्ञान प्राप्त होता है और अंत विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करता है ।

                                                           -आचार्य तुषार जोशी
                                                                    ज्योतिषाचार्य
                                                                          राजकोट 

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