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दो जहां

कहीं रोशनी के घेरे हैं
कहीं घुप्प एकांत अंधेरे हैं
कहीं शोर बढ़ रहा है गहरा
कहीं सन्नाटों का है पहरा
कहीं दिन छिपते ही काम थमे
कहीं चूर रात भर हाड़ जमे
कहीं अन्न नहीं आबादी को
कहीं भरा पड़ा बर्बादी को
कहीं अर्थ बहुत है ज्ञान नहीं
कहीं ज्ञान तो है पर भान नहीं
कहीं प्रेम अथाह है भाव नहीं
कहीं दरिया है पर नाव नहीं
कहीं सज़ा हो गई गुनाह बिना
कहीं निर्दोषों का न्याय छिना
कहीं आडंबर के झौंके हैं
कहीं लिपटे अर्थ में धोखे हैं
कहीं गरज़ से ज़्यादा भी कम है
कहीं मलबों में जीवन बेदम हैं
कहीं रफ्तारों का रैला है
कहीं फीका उजड़ा मैला है
कहीं सच प्रचलित और नामी है
कहीं मिथ्या की गुलामी है
कहीं दूर दूर तक कुछ नहीं
कहीं भीड़ की तादाद है
कहीं मुक्त है बंधा हुआ
कहीं कैद भी आज़ाद है
कहीं एका की मिसालें हैं
कहीं थालियों में छेद हैं
कहीं रंगों के त्योहार हैं
कहीं रंग में भी भेद हैं
कहीं भाव प्रेम के महंगे हैं
प्रपंच आडंबर सस्ते हैं
कहने को जहां एक है
हम दो जहां में बसते हैं

अनबाउंड

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