
राज्यपाल के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि राज्यपाल बिना कार्रवाई के अनिश्चितकाल के लिए विधेयकों को लंबित नहीं रख सकते, निश्चित रूप से अच्छी नीयत से की गई टिप्पणी है, किन्तु मात्र इस टिप्पणी से राज्यों के राज्यपाल अपनी कार्यशैली में सुधार कर लेंगे, इसकी संभावना बहुत कम है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राज्य के गैर-निर्वाचित प्रमुख के तौर पर राज्यपाल संवैधानिक शक्तियों से संपन्न होते हैं, लेकिन वह इसका इस्तेमाल राज्य विधानमंडलों द्वारा कानून बनाने की सामान्य प्रक्रिया को विफल करने के लिए नहीं कर सकते। यदि राज्यपाल किसी विधेयक को रोकने का निर्णय करते हैं तो या तो उन्हें विधेयक को पुनर्विचार के लिए विधानमंडल के पास वापस भेजना होता है या फिर अपनी तार्किक टिप्पणी करनी होती है जिस पर विधानमंडल आगे की कार्रवाई करें। संघवाद और लोकतंत्र आधारभूत ढांचे के हिस्से हैं, इन्हें अलग नहीं किया जा सकता।
दरअसल संसदीय लोकतंत्र में राज्यपाल केन्द्र सरकार का अनिर्वाचित प्रतिनिधि होता है और अनुच्छेद 200 में उसे राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों के संदर्भ में निर्णय लेने का अधिकार है। विधानसभा में प्रत्यक्ष मतदान द्वारा चुनी हुई लोकप्रिय सरकार द्वारा सदन में पारित किसी भी विधेयक को रोकने की नीयत का विश्लेषण करें तो इसके दो ही कारण संभव हैं। पहला यह कि राज्यपाल केन्द्र सरकार की विरोधी पार्टी द्वारा शासित प्रदेश के लिए एक मापदंड अपनाता है जबकि केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी के शासित राज्य के लिए दूसरा। इसीलिए राज्यपालों पर यह आरोप लगना स्वाभाविक है कि वे केन्द्र सरकार के इशारे पर ही विपक्ष शासित राज्य सरकारों को परेशान करने के लिए विधेयकों को रोकते हैं।
दूसरा कारण यह होता है कि कभी-कभी राज्य सरकारें ऐसे विधेयक पारित कराते हैं, जो राज्य या राष्ट्र के हितों के विरुद्ध होते हैं। ऐसी स्थिति में राज्य की जनता राज्यपाल से अनुरोध करती है कि वह ऐसे विधेयक को अनुमति न दें। संविधान निर्माताओं को पता था कि राज्यपाल अपनी विवेकाधीन शक्तियों का दुरुपयोग कर सकते हैं, इसीलिए उन्हें इतना अधिकार नहीं दिया कि वह चुनी हुईं सरकार के विकल्प बन सकें, किन्तु संविधान सभा ने यह भी महसूस किया था कि कभी-कभी राज्य सरकारें निरंकुशता की शैली में कार्यं करेंगी तो राज्यपाल ही उनकी गतिविधियों को नियंत्रित करेंगे।
ऐसा नहीं है कि राज्यपालों की भूमिका पहली बार विवादों से घिरी है। 1960 के दशक से ही इस बात से राजनीतिक पार्टियों को ऐतराज रहा है कि राज्यपाल अपने विवेकाधीन अधिकारों का गलत इस्तेमाल करते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने मौजूदा टिप्पणी पंजाब के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित और मुख्यमंत्री भगवंत मान के बीच तनातनी विवाद के संदर्भ में की है। बहरहाल राज्यपाल राज्य का नाममात्र का मुखिया होता है।
सामान्य परिस्थिति में उसे इस बात की उम्मीद होती है कि राज्य सरकार उससे संबंध बनाकर रहे और किसी भी तरह उसका अपमान न करे। किन्तु जब राज्य सरकार राज्यपाल के खिलाफ अनावश्यक टिप्पणी करती हैं या फिर राजनीतिक लाभ के लिए अवांछित व्यवहार करती हैं तो राज्यपाल भी अपने संवैधानिक अधिकारों की औकात दिखाने लगते हैं और यहीं से मामला बिगड़ता है। सुप्रीम कोर्ट कई बार राज्यपालों को उनकी औकात दिखा चुका है, किन्तु उसने उपबंधों के तहत उनके विवेकाधीन अधिकारों को खत्म करने के लिए अनुच्छेद 200 का निरसन नहीं किया क्योंकि ऐसा करने का उसके पास अधिकार ही नहीं है। यह कार्य तो संसद का है और केन्द्र सरकार ऐसा कोईं कानून बनाती ही नहीं, जो राज्यपाल की संस्था को कमजोर करे। यही कारण है कि राज्यपाल और मुख्यमंत्री दोनों ही संस्थाएं आपस में टकराती रहती हैं और सुप्रीम कोर्ट अपनी टिप्पणी में अच्छी-अच्छी नसीहतें देता रहता है। ऐसे ही चलता है राजकाज।