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*आटा गूथ रही थी अम्मा*
सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमय: पिता।
मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत्।।
कुछ दिनों की
*आटा गूथ रही थी अम्मा*
कुछ दिनों की ही तो बात है जब में छोटा था और खुद खड़े होने का नाकाम प्रयास कर रहा था , बगल में ही साड़ी के परदे की आड़ में जो रसोई है वहाँ अम्मा "आटा गूथ रही थी" और यहाँ मै अकेला खड़े होने की जिद में बार बार गिर रहा था , चाय की चुस्की के साथ पापा सब देख रहे थे और मेरे भविष्य की तस्वीर बनाने में व्यस्त थे कि जीवन में आने वाले उतार चढ़ाव में भी ये सम्भलना सीख जायेगा और अम्मा अब भी "आटा गूथ रही थी" , मै भी थक हार के रोने लगा और सोचने लगा कि मुझ पर किसी का ध्यान नहीं ,मेरे रोने की आबाज सुनते ही पापा कप में बाकी बची गरम चाय का लम्बा घूट पीते हुए मेरी ओर भागे , उधर अम्मा भी आटे से सने हाथों से मुझे उठाने दौड़ी, मेरे मन की पहली भ्रान्ति का अंत हुआ कि मेरी अम्मा और पापा मुझे संम्भालते क्यों नहीं ,,,
ऐसा बार बार हुआ और एक दिन खटिया की पाटी पकड़ के मै खड़ा भी हुआ और चलना भी शुरू कर दिया तभी पापा ने अम्मा को अबाज लगाई और दो पराठे सेंकने के लिए बोलते हुए शीशे में अपने बाल सँभालने लगे , और अम्मा फिर "आटा गूथने" में लग गयी मेरी खिलखिलाहट और डगमगाती चाल पर किसी का ध्यान नहीं था लेकिन दादी ने नजर से बचने के लिए काले धागे में जो चांदी दो कुंदन में मेरी कमर में बांधे थे उनकी खनखनाहट अम्मा पापा ने सुनी फिर क्या था पापा कंघी को टेबिल पर लगभग फेकते हुए मेरी ओर भागे और अम्मा का भी वही आटे से सने हाथों से मुझे पकड़के चूमना और खुश होना मेरी दूसरी भ्रान्ति का अंत कर देता है कि मेरे पहले कदम चलने पर कोई खुश नहीं .....
यहाँ मै भी समय के साथ बड़ा हो गया और स्कूल भी जाने लगा अम्मा ने मुझे स्कूल के लिए तैयार किया उधर पापा भी तैयार ही हो रहे थे और मै रात में फैलाए खिलौनों में से हेलीकॉप्टर उठा कर अम्मा के पास पंहुचा अम्मा रसोई में मेरे और पापा के टिफिन की रोटी के लिए "आटा गूथ" रही थी , लेकिन अब मेरे मन में कोई भ्रान्ति नहीं थी क्युकी मैने छोटे "अ" से अनार नहीं "अम्मा" पड़ना सीख लिया था ,,, बड़े "आ" से आम नहीं "आटा" पड़ना सीख लिया था .....वही आटा जिसे अम्मा गूथती रहती थीं और मुझे लगता था अम्मा का मुझ पर ध्यान ही नहीं ,.... लेकिन ये क्या पापा भी मेरे खिलौनों में से भूत वाला मुखौटा लगा कर पीछे से भारी आबाज में बोले "क्यों परांठा तैयार है" और हम सब ठहाका मार में हंसने लगे क्योंकि मैने "प" से पतंग नहीं "पापा" पड़ना सीख लिया था वही पापा जो दो परांठे खा कर मेरी जिंदगी भर की खुशियाँ खरीदने दिन भर के लिए निकल जाते है ,वही पापा जो मेरा जीवन जगमग करने के लिए दीवाली पर पटाखे लाते हैं, वही पापा जो मेरा जीवन रंगीन करने के लिए होली पर रंग लाते है ....
संतोष झा (महाराज)
झाँसी (उ.प्र.)