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अपराजिता (तेरा सफर)

हुआ करता था जिनका कभी शोषण,
आज कंधे से कंधा मिलाए हुए हैं।
न थी जिन्हें, कभी घर से निकलने तक की आजादी,
आज उनकी उड़ान देख, दुश्मन के कदम डगमगाए हुए हैं।
गर्वान्वित होती है हर नारी , देखकर देश का ऐसा गौरव
जब देश की गौरवशाली एक परेड में ,
अपराजिता का अनुसरण करते हैं नौजवान भाई,
देखकर देश का ऐसा दृश्य,
चमक उठती हैं मेरी आंखें,
उनके ज़ज्बे को सलाम करती हैं,मेरी सांसें
कितना हौसला मिलता है हमें इनसे,
कि कुछ कर सके इस जहां में,
समझ सकती हूं आज भी कई घरों में,
होती हैं; लड़कियों के पैरों में जंजीरें,
जिससे कुछ करने की चाहत में भी
कुछ न कर पाने से उठती है पीड़ा,
मानसिक वेदना ही है उस अपराजिता की,
निवेदन है उनके परिजनों से,
कोशिश करो समझने की उनकी वो पीड़ा,
जो वो वर्षों से सहती चली आ रही हैं,
नाम दिया है आपने सम्मान की बात है, लेकिन
पहचान हमारी खुद की होनी चाहिए,
स्वावलंबी होने की सीख घर- घर तक होनी चाहिए।
जीने का मौका दे उसे, खुले आसमां तले
एक दिन जरूर वो चिड़िया बन उड़कर दिखलाएगी।
तूफानों का सामना कर वो घर वापस लौट जरूर आएगी।
मत हो तुम मानसिक और शारीरिक वेदना का शिकार,
तुम्हें रखना है अपना स्वाभिमान बरकरार ,
यही चेतना हमें अब आगे तक पहुंचानी है,
"अपराजिता" क्योंकि ये तेरी कहानी है।
                                              -आकांक्षा गुप्ता,
                                                      आगरा।

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