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शीर्षक:- "देखो पर्वत भी चलने लगे पगडंडियों" पर

शीर्षक:- "देखो पर्वत भी चलने लगे पगडंडियों" पर
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भाग 2 (उपमा-अलंकार सहित – 12 पंक्तियाँ)

जब पर्वत भी चल पड़े हों—मानो तपस्वी संन्यास धरे हों,
और राहें जगमग हों जैसे दीपक जगे विरक्त आशाओं पर।

झरने गाते सुर ऐसे—जैसे किन्नर वीणा छेड़ रहे,
फुहारें नाचें नभ में जैसे चूड़ियाँ खिलें पावन बाहों पर।

वन का हर पत्ता डोले—जैसे नव वधू थिरक रही हो,
पवन बहे मन को छूकर जैसे माँ का आंचल रख दे माथों पर।

मोड़-मोड़ पर पुकारें पग—जैसे गुरु पथ का ज्ञान दें,
गहरी घाटी लगे जैसे ध्यान लिए योगी बैठे गहन छायाओं पर।

घास की नर्मी भी चुभती—जैसे सीखें कर्म कठोरता,
और सूरज लिखता साहस—जैसे चित्रकार रेखें खींचे परछाइयों पर।

जीवन का हर सत्य चमके—जैसे कनक दीप जला हो,
जब पर्वत भी चलने लगें हों—जैसे संकल्प चढ़े ऊँचाइयों पर।

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