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गुलामो और गुलाम बनाने वालों का धर्म एक नही हो सकता।

ध्यान से सुनो गुलामो और गुलाम बनाने वालों का धर्म एक नही हो सकता

ब्राह्मणों का धर्म हिन्दू है और अब उन शूद्रों (ओबीसी) का धर्म भी हिन्दू हो गया है। गुलाम का धर्म और गुलाम बनाने वालों का धर्म एक नही हो सकता परन्तु आज ऐसा है और यही गम्भीर समस्या है। इसका समाधान करना होगा। हिन्दू शब्द ब्राह्मणों के किसी भी धर्म ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं है। वेद, शास्त्र, स्मृति, पुराण उपनिषद इनमें कहीं पर भी हिन्दू शब्द नहीं है। हिन्दू शब्द आक्रमणकारी मुसलमानों का दिया हुआ शब्द है। ब्राह्मण लोग बाबर, हुमायूँ को गाली देकर मस्जिद गिराते हैं। इसलिए उन लोगों का दिया हुआ नाम पवित्र कैसे हो सकता है। अगर बाबरी मस्जिद कलंक है तो मुसलमानों का दिया हुआ हिन्दू नाम भी कलंक है। उसे क्यों स्वीकार किया जाता है?गीता में भी हिन्दू शब्द नहीं है। गीता में कहा गया है- यदा-यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवतिभारत, इसमें भारत शब्द को पूजने के बजाय आक्रमणकारी मुसलमानों के दिए हुए शब्द को क्यों पूजते हैं ? (भारत में आज 99 प्रतिशत मुसलमान आक्रणकारी मुसलमान नहीं है, वे एस सी, एस टी, ओबीसी के धर्मान्तरित हुए है, इसलिए एस सी, एस टी, ओबीसी, और धर्मान्तिरित अल्पसंख्यक एक ही खून के भाई भाई है।)
ब्राह्मण कहता है कि हिन्दू शब्द सिन्धू से बना है इसका समर्थन करने के लिए कहते हैं कि पार्शियन भाषा में ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ होता है इसलिए सिन्धू का हिन्दू उच्चारण हुआ। अगर बारहवीं शताब्दी में मुसलमानों ने यह शब्द दिया था तो ब्राह्मणों ने उस वक्त हिन्दू शब्द को क्यों नहीं स्वीकार किया? मुसलमान शासकों ने जब जजिया कर लगाया था तब ब्राह्मणों पर जजिया कर लागू नहीं था, तो सिद्ध हो जाता है कि उस समय के ब्राह्मण हिन्दू शब्द को नहीं मानते थे। जो पहले अपने आप को हिन्दू नहीं मानते थे वे आज अपने आप को हिन्दू क्यों मानते हैं ब्राह्मण उस समय हिन्दू शब्द को अस्वीकार इसलिए करते थे क्योंकि आक्रमणकारी मुसलमानों ने यह नाम दिया हुआ था और अरबी भाषा में इसका अर्थ है पराजित गुलाम, चोर, काला, लुटेरा। इसलिए अपने आप को हिन्दू मानने से इन्कार कर दिया। परन्तु वह अब अपने आप को हिन्दू क्यों मानते हैं? यह अहम् सवाल है।
आप लोग शायद यह नही जानते होंगें कि गुजरात के ब्राह्मण दयानन्द सरस्वती ने 1875 में मुम्बई में जाकर आर्य समाज की स्थापना की थी। ब्राह्मण 1875 तक अपने को आर्य मानते थे। बाल गंगाधर तिलक ने लिखकर यह सिद्व किया कि ब्राह्मण आर्य हैं और आर्यों ने यहां की प्रजा को पराजित किया यह बात गर्व से सिद्धकी। अगर ब्राह्मण आज भी अपने आप को आर्य कहते तो हमारा कार्य और आसान होता। हमारे लोग बाह्मणों के झांसे में न फंसतें। जो ब्राह्मण अपने आप को आर्य कहते थे, उन्हीं ब्राह्मणों ने 1922 में हिन्दू महासभा की स्थापना की और 1925 में आर एस एस की स्थापना की। 1922 तक जो ब्राह्मण अपने आप को आर्य कहते थे, उन्होंनें अपने आप को हिंदू कहना शुरू कर दिया। सभी हिंदू धर्म ग्रंथ 1875 के पहले लिखे गये हैं इसी कारण उनमें हिंदू शब्द नहीं आया है।
1875 से 1922 तक ऐसा क्या हुआ। ऐसा कौन सा कारण हुआ कि ब्राह्मणों ने अपने आप को आर्य कहना बन्द करके हिंदू कहना शुरू किया? 1875 से 1925 के 50 सालों में कोई बहुत गम्भीर बदलाव हुआ होगा जिस वजह से आर एस एस ने आर्य समाज बनाने के बजाय हिंदू समाज का नारा लगाया। इसका यह मतलब हुआ कि 1875 और 1922-25 के बीच में कोई ऐतिहासिक बदलाव हुआ होगा जिस वजह से ब्राह्मणों को अपने आप को आर्य कहना छोड़ देना पडा़ ऐसा क्यों हुआ?
इसी बीच इग्ंलैण्ड में एडल्ट फ्रचाईस (प्रौढ़ मताधिकार) का आंदोलन शुरू हुआ। इसके पहले इग्लैंड में भी प्रौढ़ मताधिकार नहीं था। वहाँ जब आन्दोलन शुरू हुआ तो भारत के ब्राह्मणों को यह लगा कि यदि इग्लैण्ड में प्रौढ़ मताधिकार का अधिकार मान्य हो जायेगा तो चूँकि इण्डिया-ब्रिटिश इण्डिया है, इस लिए ब्रिटेन का हर कानून आज नही ंतो कल भारत में लागू होगा ही। इस तरह से प्रौढ़ मताधिकार भी भारत में लागू होगा और भारत में लागू हुआ तो भारत के प्रत्येक 21 साल के व्यक्ति को मताधिकार मिलेगा। भारत में शूद्र और अतिशूद्रों की संख्या 85 प्रतिशत है। बहुसंख्यकों को वोट का अधिकार मिलेगा और लोकतंत्र में जिनकी बहुसंख्या होगी राज भी उसी का होगा। ब्राह्मण अल्पसंख्यक होने की वजह से उनको कुछ नहीं मिलेगा और उनका वर्चस्व खत्म हो जायेगा। प्रौढ़ मताधिकार का आन्दोलन इग्लैण्ड में चला और उसकी घंटी भारत में ब्राह्मणों के घर बजने लगी कि मामला बहुत खतरनाक है।
ब्राह्मण अपने आप को आर्य मानते थे और आर्य की प्रचार थ्योरी यह थी कि आर्य लोग भगवान द्वारा चुने हुए लोग है,लोगों द्वारा उनको दुबारा चुनने की जरूरत नहीं है। जब ब्राह्मणों ने देखा कि शूद्र अतिशूद्र को वोट का अधिकार मिल जायेगा तो देश का प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बनने का समय आयेगा तो चुनाव लड़ना पड़ेगा। अगर ब्राह्मण चुनाव नहीं लड़ेगे तो उनका वर्चस्व समाप्त हो जायेगा। चुनाव लड़कर भी जीत नही सकते तो अपना वर्चस्व कैसे बनाये रखेंगें?3 प्रतिशत ब्राह्मण चुनाव कैसे जीत पायेंगें?भारत के 545 चुनाव क्षेत्रों में कोई भी चुनाव क्षेत्र ऐसा नहीं है, जहाँ ब्राह्मणों की संख्या ज्यादा हो।
ब्राह्मण का उपनयन संस्कार होता है। उपनयन संस्कार का मतलब है जनेऊँ धारण करना, यह ब्राह्मण धर्म का महत्वपूर्ण संस्कार है लेकिन क्या शूद्रों का उपनयन संस्कार होता है?किसी अहीर कुर्मी या किसी पिछड़े वर्ग के व्यक्ति का उपनयन संस्कार हुआ है। किसी पिछड़े का उपनयन संस्कार नहीं होता है इस वर्ग के लोगों को विवाह के समय किसी-किसी के गले में जनेऊँ डाल दिया जाता है। इससे यह बात प्रमाणित हो जाती है कि शूद्र, ब्राह्मण धर्म से बाहर के लोग है। ब्राह्मण धर्म को ही आज हिन्दू धर्म कहा जाता है। उपरोक्त उदाहरण से यह बात सिद्ध हो जाती है कि शूद्र हिन्दू नहीं है।
साथियों, जब मण्डल कमीशन का मामला खड़ा हुआ और 54 प्रतिशत ओबीसी को आरक्षण देने की बात सामने आई तो भारत के सारे ब्राह्मण ओबीसी के विरोध में खड़े हो गये। इससे यह सवाल खड़ा होता है कि अगर ओबीसी को ब्राह्मण हिन्दू मानते है और ब्राह्मण भी हिन्दू है तो ब्राह्मण लोग ओबीसी को आरक्षण का अधिकार क्यों नहीं देते?आरक्षण देने की बात तो दूर की है, ब्राह्मण उसका विरोध करते हैं।
आधुनिक भारत में शूद्रों को शिक्षा, सम्पत्ति तथा सत्ता में भागीदारी मिलने लगी। वह सम्पन्न हो गया, शिक्षित हो गया, अतः पिछड़ी जातियाँ जो मूलतः ब्राह्मण धर्म के शूद्र वर्णमें आती हैं, आज स्वयं को शूद्र मानने को तैयार नहीं है। वे अपनी पहचान या तो क्षत्रिय वैश्य से करना चाहते हैं अथवा हिन्दू के रूप में । वर्तमान में पिछड़े वर्ग के सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अपने को शूद्र न मानकर अपने को हिन्दू मानता है।
पिछड़ा वर्ग आज ब्राह्मणों का हथियार बन गया हैं जिसे ब्राह्मण मुसलमानों के विरुद्ध प्रयोग करता है तथा अपने को सत्ता में स्थापित किए हुए है। पिछड़ी जाति को यदि अपने वर्ण की पहचान करना है तो वह निम्न बिन्दुओं के आधार पर अपने वर्ण का निर्धारण कर सकता है कि वह ब्राह्मण है , क्षत्रिय है, अथवा वैश्य है, या शूद्र है-
1- उपनयन संस्कार के आधार पर
2- ब्राह्मण धर्म ग्रन्थों के आधार पर
3- शिक्षा के अधिकार के आधार पर
4- अन्र्तजातीय विवाह पर प्रतिबन्ध के आधार पर
5-विधवा विवाह के आधार पर।
ब्राह्मण धर्म के अनुसार शूद्र की जातियों को उपनयन संस्कार से वंचित किया गया। उपनयन संस्कार की व्यवस्था आर्यो तथा अन्यों के मध्य विभाजन के लिए बनायी गयी है। उपनयन संस्कार से आर्यों के दूर से ही देखकर समझा जा सकता था कि कौन आर्य है। यह व्यवस्था आर्य ब्राह्मणों ने ठीक उसी प्रकार निर्माण की है जैसे कुत्ते के गले में पट्टा पड़ा होने से यह जाना जा सकता है कि वह पट्टाधारी कुत्ता पालतू है तथा जिस कुत्ते के गले में पट्टा नहीं है वह आवारा कुत्ता है पट्टा ही आवारा तथा पालतू की पहचान होती हैं।
आज जो पिछड़ी जातियाँ अपने को क्षत्रिय अथवा वैश्य वर्णो में होने का दावा करती हैं अपने 3-4 पीढ़ी पूर्व के इतिहास का अवलोकन करना चाहिए कि वास्तव में उनकी 3-4 पीढ़ी पहले पूर्वजों को यह उपनयन संस्कार ब्राह्मणों द्वारा कराया जाता था, उन्हें उत्तर नकारात्मक अर्थात नहीं में मिलेगा। आज ब्राह्मण, शूद्रों की प्रतिक्रिया को, उनके आन्दोलन को समाप्त करने के लिए आर्य समाज एवं गायत्री शक्ति पीठ केवल शूद्रों को ही नही जनेऊँ पहनाते हैं बल्कि स्त्रियों तथा अतिशूद्रों का भी उपनयन संस्कार कराया जा रहा है।
यदि किसी भी पिछड़ी जाति को इस पर जरा भी सन्देह है कि हम शूद्र है तो उन्हें आज से 100 वर्ष के पहले की व्यवस्था के इतिहास को जान लेना चाहिए। ब्राह्मणों ने शूद्रों को शूद्र कहना बन्द कर दिया किन्तु मानना बन्द नहीं किया। इन्हें शूद्र के स्थान पर हिन्दू का पाठ बड़ी तेजी से पढ़ाया जा रहा है। इस कार्य को ब्राह्मणों ने मुसलिम समुदाय का हौवा खड़ा करके हिन्दुत्व के नाम पर पिछड़ों को अपने कब्जे में कर लिया है। एक बार कुछ लोग कहीं जा रहे थे तो रास्ते के किनारे दो खूटों में जंजीर से अलग-अलग एक जवान हाँथी और एक छोटा बच्चा हाँथी के बंधे थे। तो हाँथी का छोटा बच्चा बार-बार अपना बंधा हुआ पैर झटक रहा था, ताकि शायद जंजीर टूट जाय या खूंटा ही उखड़ जाय लेकिन न तो जंजीर टूटा और न ही खूंटा उखड़ा। परन्तु जवान और बड़ा हाँथी चुपचाप देख रहा था, वह कोई प्रतिक्रिया नहीं कर रहा था। तो एक आदमी ने दूसरे आदमी से पूँछा कि छोटा बार-बार जो प्रयास कर रहा है तो उससे जंजीर या खूँटा उखड़ने वाला नहीं है। अगर बड़ा हाँथी प्रयास करे तो जंजीर और खूँटा टूट सकता है परन्तु बड़ा हाँथी प्रयास क्यों नही कर रहा है? तो दूसरे आदमी ने बताया कि जब बड़ा हाँथी छोटा था तब उसने भी इसी तरह प्रयास किया लेकिन कुछ नही हुआ तो उसके दिमाग में यह बात घर कर गई है कि अब भी कुछ नहीं हो सकता जबकि वह काफी शक्तिशाली हो गया है किन्तु उसे अपनी शक्ति का आभास नहीं है। ठीक उसी तरह पिछड़ा वर्ग समाज को अपनी शक्ति का आभास नहीं है। किन्तु जिस दिन ओबीसी को यह बात समझ में आ जायेगी कि ब्राह्मण मेरी ही शक्ति से शक्तिशाली बना हुआ है तो उसी दिन ओबीसी आजाद हो जायेगा।
वेद, शास्त्र, गीता, महाभारत तथा रामायण ब्राह्मणों ने लिखा जिसे ओबीसी एवं एस. सी. के लोग पढ़ते है और उन्हीं के बनाये देवी देवताओं और भगवान की पूजा करते है। ब्राह्मणों इन तमाम ग्रन्थों को अपने हितों के लिए लिखे हैं और हमें नीच बताया है। यदि हम लोग उसी का अनुपालन करते हैं तो हमारा कल्याण कैसे हो सकता है।
आप लोग लाखों करोड़ांे रूपये इकट्ठा करके मन्दिर बनाते हैं उसमें घंटी बजानें के लिए ब्राह्मण को बैठा देते हैं और फिर उसी में चढ़ावा चढ़ाते हैं, पत्थर के भगवान पर माथा पटकते हैं कि हे भगवान! मेरा कल्याण करो और उधर आपके पैसे (चढ़ाव) से ब्राह्मण का लड़का डाॅक्टर, इंजीनियर, वकील, आईएएस, पीसीएस बनके विदेशी डिग्री भी हासिल करता है शासन-प्रशासन चलाता है और आप लोगों पर शासन करता है और आप लोग पत्थर की मूर्ति में उद्धार कर्ता भगवान को खोजते रहते हो, जब ये हमारा समाज चढ़ावा चढ़ाने के बजाय उस पैसे को राष्ट्रव्यापी जन आन्दोलन में लगावे तभी समाज का भला हो सकेगा, अन्यथा पत्थर पर सिर पटकने से तो सिर फूटेगा ही।
आज सभी पिछड़े व अनुसूचित को हिन्दू रैपर से संतरे की तरह ढक दिया है और अन्दर अन्दर टुकड़े-टुकड़े कर दिया तथा ओबीसी के जनबल, बाहुबल, धनबल, बुद्धिबल और मनोबल को तोड़कर रख दिया। दुनिया में कहीं भी ऐसा देखने को नहीं मिलेगा कि 85 प्रतिशत आबादी वाले लोग 15 प्रतिशत लोगों के सामने कटोरा लेकर भीख माँगे। लेकिन भारत में ऐसा ही हो रहा है। ओबीसी के ऊपर हिन्दुत्व की चमक जितनी गहरी होगी ब्राह्मणवाद उतना ही सुरक्षित होगा।
ओबीसी की अलग से जनगणना करवाकर वे अपने को अल्पसंख्यक क्यों करेंगे। 15 प्रतिशत ब्राह्मणवादी 54 प्रतिशत ओबीसी को अपने साथ जोड़कर बहुसंख्यक बना हुआ है इसलिए ब्राह्मण ओबीसी की जनगणना अलग कराकर ओबीसी को उसकी ताकत का एहसास कभी नहीं होने देंगे। यदि ओबीसी की जनगणना अलग से कराई गई तो ओबीसी को यह मालूम हो जायेगा कि भारत में ओबीसी की सामाजिक, आर्थिक स्थिति को ढ़ाँकने के लिए हिन्दू का लेबल लगाया गया है। यदि ओबीसी को अपनी संख्या के आधार पर अधिकार लेना है तो हिन्दुत्व से आजाद होना होगा।हिन्दुत्व की हर बेड़ी को तोड़ना होगा और अपना आन्दोलन चलाना होगा। यही एकमात्र समाधान है। हमारा बिखराव ही ब्राह्मणों की सबसे बड़ी ताकत है दक्षिण भारत में एस. सी., एस. टी., ओबीसी और माॅयनोरिटी साथ है लेकिन उत्तर भारत में ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने उन को विभाजित करके रखा हुआ है और खेती करने वाली जातियों को अपने साथ जोड़कर दिखाया कि ये उच्च जाति के है। ब्राह्मणवादी षड़यंत्र करके एस. सी., एस. टी. ओबीसी, और माॅयनोरिटी को आपस में लड़ाते रहते है ताकि इनका शक्तिशाली संगठन न बन पाये।
अग्रेंजी राज्य से पहले पिछड़ी जातियों के लोग द्विजों का चिन्ह जनेऊँ नहीं पहनने पाते थे। द्विजों की धर्म पुस्तक वेद और शास्त्र नहीं पढ़ सकतें थे। पिछड़ी जातियाँ सोंचती हैं कि जनेऊँ धारण करके और क्षत्रिय (कुर्मी, क्षत्रिय यदुवंशी क्षत्रिय, पाल क्षत्रिय, लोधी राजपूत, आदि) कहलाकर वे अपनी सामाजिक स्थिति ऊँची कर लेंगी। इनकी इस सोच को नादानी ही कहा जायेगा क्योंकि कमजोरों (दलितों, अछूतों, आदिवासियों) से तो वे अपने को पहले से ही ऊँचा मानती है और उच्च वर्ग से अपनी निकटता प्रमाणित करने की सनक में इन पर प्रायः हमलावार रहती है। वास्तव में यह उच्च वर्ग के प्रति इनकी गुलामी की मानसिकता का प्रमाण है। सामाजिक रूप से स्वयं सर्वोच्च बनने की इनकी कोई तमन्ना नही है क्योंकि पुरोहितों के आधीन व्यवस्था के अन्दर ही अपनी श्रेष्ठता स्वीकार किए जाने के लिए ये परेशान हैं न कि स्वतंत्रता और समानता के लिए।
पिछड़े समाज की प्रायः सभी जातियां मौखिक तौर पर पुरोहितों के खिलाफ आग उगलती देखी सुनी जाती हैं लेकिन सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में मनसा और कर्मणा से पुरोहिती व्यवस्था का ही अनुगमन करती देखी जाती है। अर्जक संघ के प्रणेता और संस्थापक रामस्वरूप वर्मा शूद्र समाज को सछूत शूद्र और अछूत जातियों को अछूत शूद्र कहते थे। पिछड़े वर्ग की जातियों को वे उच्च वर्ग का मानसिक गुलाम और अछूत जातियों को शारीरिक गुलाम के रूप में क्रमशः तीतर गुलाम और तोता गुलाम की संज्ञा देते थे। तीतर पिंजड़े में ही दाना पानी पाकर प्रसन्न रहता है। पिंजड़े की कील निकालकर व खिड़की खुली पाकर भी वह कभी भागने की कोशिश नहीं करता। जब कभी उसका मालिक हवा पानी के लिए पिंजड़े से बाहर भी निकाल देता है लेकिन तीतर चाहे कितना भी दूर क्यों न चला जाय मालिक की टिटकार सुनकर स्वतः ही पिंजड़े में आ बैठता है तीतर जैसी स्थिति पिछड़े वर्ग की है।
तोता की प्रवृत्ति पिंजड़े में बन्द रहकर संतुष्ट रहने की नहीं हैं तोता पिंजड़े की कील निकालकर फुर्र हो जाने की ही फिराक में रहता है। एक बार किसी भी प्रकार से यदि निकल पाया तो मालिक द्वारा लाख कोशिश करने पर भी फिर कभी वापस नहीं आता। क्योंकि वह शारीरिक गुलामी में जकड़ा परन्तु मानसिक रूप से अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत सेनानी होता है। दलित समाज की जातियों की मानसिक उथल-पुथल तोता गुलाम की तरह है। सामाजिक स्वतंत्रता के लिए दलित समाज की जातियों के इस नेतृत्वकारी गुण के लिए उनका नेतृत्व स्वीकार करके सम्मान किया जाना चहिए। परंतु पिछड़े समाज की जातियाँ अपने बाहु और संख्या बल की अकड़ में इनका नेतृत्व अपमानकारी ही मानेंगी जबकि द्विजों की अधीनता में रहने से इन्हें कोई गुरेज नहीे है।
वर्ण व्यवस्था प्रारम्भिक स्तर पर त्रिवर्णीय थी। क्षत्रियांे द्वारा पुरोहितों की सर्वश्रेष्ठता को चुनौती दिये जाने से इसके चतुर्वर्णीय होने की स्थिति पैदा हुई। अपनी सर्वश्रेष्ठता को नकारे जाने से तिलमिलाए पुरोहितों ने विद्रोही क्षत्रियों को आर्य समाज से बहिष्कृत करने के लिए उनका उपनयन संस्कार करना बंद कर दिया था। जनेऊँ से ही आर्य और अनार्याें की शारीरिक पहचान होती थी। आर्य मान्यता में गुण-दोष के अनुसार शूद्र का मतलब नीच है।
अपनी भारी जनसंख्या के बावजूद भी दलित पिछड़े मिलकर अपनी सरकार नहीं बना पा रहे हैं। सत्ता के शीर्षस्थ पद पर किसी दलित/पिछड़े के आसीन हो जाने का मतलब यह कतई नहीं समझना चाहिए कि ये सरकार उन्हीं की है। ऐसा शीर्षस्थ व्यक्ति बहुत ही कमजोर होता है और ऐसे व्यक्ति के द्वारा अपनों के नाम से संचालित सरकार अपनों का ही शोषण कर दूसरों को लाभ की स्थिति में रखती है। सरकार में जिन लोगों का बहुमत अथवा प्रभाव होता है सरकार उन्हें और उनके लागों को ही फायदा पहुँचाती है।
पिछड़े वर्ग की जातियों का संघर्ष, सामाजिक चेतना नहीं बल्कि क्षत्रिय बनने तथा जनेऊँ धारण करने तक ही सीमित है ये क्रान्ति के नहीं बल्कि यथास्थिति कायम रखने के समर्थक हैं। अपनी सामाजिक स्थिति न्यून न हो जाय इसलिए एतिहातन ये दलितों से दूरी बनाकर रखने में ही अपनी कुशलता समझते हैं। गाँव गली स्कूल-काँलेज या अन्य किसी भी स्थान पर सवर्णो एवं अछूतों के बीच जब कोई संघर्ष छिड़ता है, तो पिछड़े समाज की जातियाँ अपने स्वाभाविक मित्रों से दूर जाकर द्विजों के ही पक्ष में खड़ी होकर स्वाभाविक मित्रों के सामने मुश्किल खड़ी करती हैं।
पिछड़े वर्ग को मालूम नहीं है कि जनगणना क्यों होती है। पारसी की गणना होती है, मुस्लिम की गणना होती है। एस. सी., एस. टी. की गणना होती है। लेकिन 54 प्रतिशत पिछड़े वर्ग की गणना होती ही नहीं है। पूरे देश में ब्राह्मणों की संख्या 3.5 प्रतिशत है परन्तु 54 प्रतिशत पिछड़े वर्ग को हिन्दू बनाकर अल्पसंख्यक ब्राह्मण बहुसंख्यक बना हुआ है और हमारे ऊपर राज करता है।
सन् 1951 में नेहरू ने साजिश करके जाति के बजाय पिछड़े वर्ग की गणना हिन्दू के रूप में करवाया।उस समय पिछड़े वर्ग के लोग कांगे्रस के पीछे लगे हुए थे परन्तु इस साजिश को नहीं समझ पाये। नेहरू ने सोंचा कि यदि जातिगत गणना करा दिया जायेगा तो पिछड़े वर्ग के लोगों को पता चल जायेगा कि उनकी संख्या पूरी आबादी में आधे से अधिक है तो देश की सत्ता हासिल करने के लिए पिछड़े वर्ग के नेता संख्या बल को जागृत करने लगेंगे। इससे ऊँची जातियों की सत्ता चली जायेगी। इसलिए पिछड़े वर्ग की गणना हिन्दू के नाम पर करवाकर इनको मूर्ख बनाया जा रहा है और अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। आज आवश्यकता है पिछड़े वर्ग के प्रबुद्ध बन्धुओं को उपरोक्त तथ्यों पर चिन्तन
- मनन करने की।

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