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समाज और अर्थव्यवस्था किस तरह महिलाओं पर निर्भर है।

कोई भी प्राकृतिक आपदा आये या कोई भी महामारी, ग़रीबी, भुखमरी, बीमारी और तमाम संघर्षों से ज़िन्दगी बचाने की जद्दोजहद तो हर व्यक्ति करता है, लेकिन सबसे ज़्यादा असर किस तबक़े की ज़िन्दगी पर पड़ता है? जाहिरा तौर पर इस देश के गरीब तबके पर। ये कोई नई बात नहीं है। ऐसा तो हमेशा से ही होता आया है। हमेशा सबसे ज्यादा कीमत इस देश के वो लोग चुकाते हैं, जिनके खून पसीने से दुनिया की सारी सम्पदा इकठ्ठा होती है। और उनमें भी सबसे ज्यादा देश की महिलाएँ इन गहरे आघातों का सामना करती हैं। और इसकी वजह साफ है कि आज हम भले ही 21 वीं सदी में जी रहे हैं लेकिन आज भी औरतें समाज में दोयम दर्जे की नागरिक बनी हुई हैं और समाज में लैंगिक असमानता की नंगी सच्चाई बनी हुई है। आज भी कागज पर लिखे तमाम अधिकार कभी व्यवहार में नहीं उतरें हैं। अब महामारी ने भी साबित कर दिया है कि समाज और अर्थव्यवस्था किस तरह महिलाओं पर निर्भर है।

इस पूरे कोरोना काल में महिलाओं ने कुल कामों का दो-तिहाई हिस्सा अकेले किया। लॉकडॉउन में जब सबको आराम करने का मौका मिला तब भी महिलाएं पहले से भी ज्यादा काम करती रहीं। घर में सबके लिए खाना तैयार करने से लेकर साफ-सफाई, बच्चों की देखभाल घरवालों की देखभाल से लेकर तमाम तरह के अवैतनिक, उबाऊ और थकाऊ काम करती रहीं। यहां तक कि स्वास्थ्य पेशेवरों, सामुदायिक स्वयं सेवकों, परिवहन और रसद प्रबन्धकों, वैज्ञानिक, डॉकटरों, वैक्सीन डेवलपर्स हर मोर्चे पर महिलाएं अगली पक्ति में खड़ी रहीं। हेल्थ सेक्टर का लगभग 70 प्रतिशत काम महिलाओं ने किया।

वास्तव में देखा जाए तो एक पितृसत्तात्मक समाज वर्षों से चला आ रहा है, जिसमें महिलाओं को एक नागरिक कम नौकरानी का दर्जा दिया गया है। लड़कियों को बचपन से ही क्षमा, भय, लज्जा, सहनशीलता और आज्ञाकारिता की ट्रेनिंग दी जाती है। वही एक तरफ लड़कों को घूमने-फिरने की, खेलने की, तमात तरह की छूटें दी जाती हैं और घर के कामों से पूरी तरह से दूर रखा जाता है, वही दूसरी तरफ एक लड़की को खाना पकाना, कपड़े धोना, घर की साफ-सफाई और लोगों की देखभाल का काम सिखाया जाता है।

ऐसे में जब लॉकडॉउन हुआ तब अतिरिक्त साफ-सफाई और काम का बोझ भी महिलाओं के जिम्मे आ गया। उन महिलाओं की स्थिति तो और भी खराब हुई जो नौकरीपेशा थीं। 21 प्रतिशत महिलाओं ने तो नौकरी से ही छुट्टी ले ली। जबकि लगभग 24 प्रतिशत महिलाओं पर उनके घर वालों ने ही दबाव बनाया कि वो नौकरी छोड़ कर घर वालों की देखभाल करें। 24 प्रतिशत महिलाओं का कहना था कि उन्होनें काम के घण्टे इसलिए कम कर दिये ताकि बच्चों और परिवार की देखभाल कर सकें।

बाकी जिन महिलाओं को घर बैठे नौकरी करनी पड़ी, उन्हें ऑनलाइन जॉब के साथ-साथ घर भी सम्भालना पड़ा। यहां तक बच्चों को होमवर्क कराने से लेकर सोशल डिस्टेसिंग उपायों, और स्वास्थ्य प्रणालियों को लागू कराने से लेकर परिवार की बुनियादी अस्तित्व की जरूरतों को पूरा करने और बिमारों और बुजुर्गों की देखभाल के साथ-साथ उन्हें घर के सभी सदस्यों की देखभाल का काम भी करना पड़ा। जिसमें पुरूषों का बहुत मामूली योगदान रहा। झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाली महिलाओँ को पानी भरने के लिए सामुदायिक पंपों पर जाना पड़ता था, शौचालयों में लम्बी-लम्बी लाइने लगानी पड़ती थीं। जिससे कोरोना का संक्रमण कई गुना बढ़ जाने का खतरा रहता था।       

संकट के समय में जब संसाधन कम होते हैं और बाकी संस्थान और सेवायें बन्द होती हैं तब महिलाओं को दूरगामी परिणामों के साथ विकट स्थितियों का सामना करना पड़ता है। जो आगे चलकर उनमें कमजोरी, बिमारी और तनाव के रूप में सामने आती है। यही कुछ कोविड-19 के समय में भी हुआ। घर के लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने की जद्दोजहद के बीच अकसर महिलाएं ख़ुद पोषण युक्त खाना नहीं खा पाती थीं और ना ही खुद की सुरक्षा और स्वास्थ्य पर ध्यान दे पाती थीं। और आज ये बात कई रिसर्च में भी सामने आयी है कि न्यूट्रीशन की कमी पुरूषों की अपेक्षा स्त्रीयों में ज्यादा है। एक सर्वे में ये भी बात सामने आयी है कि लगभग 33 प्रतिशत महिलाओं को पूरे लॉकडॉउन के दौरान भरपूर नींद भी नसीब नहीं हुई।

कोविड के प्रसार को रोकने के लिए स्वच्छता एक महत्वपूर्ण कारक है। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 40 फीसदी ग़रीब आबादी के पास साफ पानी और साबुन के साथ हैण्डवाश की सुविधा नहीं है। भारत में ज्यादातर महिलाएं गरीब तबके से आती हैं। यू एन वोमेन के अनुसार 2020 में 8 करोड़ औरतें गरीबी रेखा के निम्न स्तर पर थी, जिन्हें कोरोना काल में पीने का साफ पानी और साफ-सफाई और सुरक्षा के जरूरी सामान नहीं मिले। जबकी प्रधानमंत्री जी पूरे देश में स्वछता अभियान का ठिंठोरा पीट रहे हैं।

एक स्त्री के लिए समानता, स्वतन्त्रता, लोकतान्त्रिक मूल्य, निर्णय लेने का अधिकार, सम्मानपूर्ण जीवन जीने का अधिकार हमारे समाज में कहां मिला है? आज भी बेवजह उसकी पशुओं की भांति पीटाई होती है। उसे शारिरीक और मानसिक दोनो तरह के उत्पीड़न झेलने पड़ते हैं। शराब पीकर घर की महिलाओं को मारना पीटना, उनके साथ ज़बरदस्ती करने जैसी घटनाएं तो आम बात है समाज के लिए। लेकिन महामारी के दौरान उसका और भी घिनौना और घातक रूप सामने आया। पूरे लॉकडॉउन के दौरान घरेलू उत्पीड़न लगभग 40 फीसदी बढ़ गया। वही कुछ राज्यों में 50-60 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई, जिसमें सबसे आगे योगी जी का उत्तर प्रदेश रहा।

जब स्कूल, कॉलेज से लेकर बाजार, दफ्तर सब बन्द थे तब उत्पीड़न से बचने का महिलाओं के पास कोई रास्ता नहीं था। नेशनल कमीशन फॉर वोमेन के अनुसार महिला उत्पीड़न की घटनाएं लगातार बढ़ती रहीं। रिसर्चर्स के मुताबिक सभी यौनिक उत्पीड़न का 50 प्रतिशत पुरूषों के अल्कोहल पीने की स्थिति में हुआ। ऐसे में एक नई हेल्प लाइन शुरू की गई ऐसे मामलों के लिए। लेकिन बाकी हेल्प लाइनों की तरह ही वो भी बेअसर रही। सुरक्षा, स्वास्थ्य और पैसों की दिक्कत रहने की स्थिति, आइशोलेशन, महिला अधिकारों के लिए आन्दोलनों पर पाबंदी और पब्लिक स्पेस पर रोक लगने के परिणाम महिलाओं के बर्बर उत्पीड़न के रूप में सामने आया। कोविड के पहले भी देश में नौकरियों की खस्ता हालत थी, लेकिन कोविड के कारण लॉकडाउन के दौरान काम धन्धे सबके बन्द हो गये और अभी लॉकडॉउन हटने के महीनों बाद भी लोग परेशानियों का सामना कर रहे हैं।

आकड़ों की बात करें तो सेंटर फॉर मॉनिटरींग द इण्डियन इकोनॉमी का हालिया सर्वे बताता है कि भारत में कम से कम 12-13 करोड़ नौकरियाँ मई महीने के शुरुआत में ही जा चुकी थीं। और लगभग 2 अरब नौकरियां जाने की आशंका जताई जा रही है। इसका सबसे बुरा प्रभाव महिलाओं के रोज़गार पर पड़ा है। सब सेवाएं व संस्थान बंद होने की वजह से लगभग 80 फीसदी महिलाओं के रोज़गार छिन गये। वही महामारी के दौरान जिन महिलाओँ ने काम किया उनमें 51.6 फीसदी महिलाओं को कोई वेतन नहीं मिला। आज भी हमारे देश में वेतन के मामले में एक गहरी असमानता जड़ जमाई हुई है। आज भी समान काम के लिए महिलाओं को पुरूषों से कम वेतन मिलता है। महिलाएं आम तौर पर सेवा क्षेत्र और असंगठित क्षेत्रों में काम करती हैं। यू.एन वूमेन के सर्वेक्षण के अनुसार महिलाएं पुरूषों की तुलना में ज्यादा तेजी से रोजगार खो रहीं हैं। लॉकडॉउन के बाद मेहनताने की दर बहुत नीचे गिर गई । जिससे आज लगभग 82 फीसदी मेहनतकशों की आबादी अपने तमाम खर्चों में कटौती करके मुश्किल से गुजारा कर रही है। 38 फीसदी महिलाओं का कहना है कि महामारी के पहले वो जितना सैलरी पाती थीं अब उसके आधा पाती हैं।

कोरोना संकट की वजह से स्त्री-पुरूष असमानता का ग्राफ भी बहुत नीचे आया है। जो हक़ और अधिकार हजारों वर्षों में महिलाओं ने कठिन संघर्षों की बदौलत हासिल किये थे आज उन अधिकारों के छिन जाने का खतरा ज्यादा बढ़ गया है। आज पढ़ने लिखने से लेकर सभी क्षेत्रों में नौकरी करने में लड़कियों, महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है लेकिन यूनेस्को के अनुसार- स्थितियां सामान्य होने के बाद इन सभी क्षेत्रों में लड़कियों और महिलाओं के वापस लौटने की सम्भावना बहुत कम है। ऐसे में महिलाओं की परनिर्भरता बढ़ेगी और स्त्री उत्पीड़न की बर्बरता भी बढेगी।

ऐसे समय में देश की सरकार को इन सभी स्थितियों को समझते हुये महिलाओं को कुछ विशेष अधिकार देने चाहिए लेकिन मोदी सरकार से इस बात की उम्मीद नहीं की जा सकती है। कोरोना के आने से लेकर अब तक सरकार ने जिस गैरज़िम्मेदारी और नाकामी का परिचय दिया है और जिस तरह से बेरोजगारी, महंगाई जैसी हर समस्या का ठीकरी कोरोना के मथ्थे मढ़ने की कोशिश की है, उससे तो यही साबित होता है कि उससे कोई उम्मीद नहीं किया जा सकता।

इतिहास भी गवाह है कि जब-जब किसी देश में ऐसी विकट स्थिति पैदा हुई है, तब-तब सरकारों ने अपने नाकामी को छिपाने के लिए अंधराष्ट्रवाद, साम्प्रदायिकता और आतंक के चक्रव्यूह में जनता को फसाने की कोशिश की है और मोदी सरकार भी इससे अलग कुछ नही कर रही है। आज देश में भयंकर तनाव का माहौल बनाया जा रहा है, जातिवाद, साम्प्रदायिकता और अंधराष्ट्रवाद का ज़हर फैलाया जा रहा है।

आज हमें खुद ही सोचना होगा और रास्ता निकालना होगा क्योंकि जब तक ये पूंजीवादी पितृसत्तात्मक समाज बना रहेगा तब तक स्त्री-पुरूष असमानता बनी रहेगी और तब तक सरकारें जनता की उपेक्षा कर मुठ्ठी भर धनपशुओं की नुमाइन्दगी करती रहेंगी। तब तक ना तो स्त्रियाँ आजाद हो सकतीं हैं और ना ही इससे बेहतर समाज की हम उम्मीद नहीं कर सकते हैं।

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