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कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव अनुचित भारत की कार्यपालिका और न्यायपालिका में आजकल लगातार टकराव की खबरें स

कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव अनुचित


भारत की कार्यपालिका और न्यायपालिका में आजकल लगातार टकराव की खबरें सुनने को मिल रही हैं। देश की सर्वोच्च अदालत का मत है कि न्यायाधीशों की नियुक्तियों में सरकार की दखलंदाजी बिल्कुल भी उचित नहीं है। इसके विपरीत केंद्र सरकार के कानून मंत्री किरन रिजिजू का कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय की न्यायाधीश-परिषद (कालेजियम) अगर यह समझती है कि सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति में हस्तक्षेप कर रही है तो वह उनकी नियुक्ति के प्रस्ताव सरकार के पास भेजती ही क्यों है? कानून मंत्री के इस बयान ने न्यायाधीशों को काफी खफ़ा कर दिया है। वे कहते हैं कि न्याया​धीशों की नियुक्ति में सरकार को टाल मटोल करने की बजाय कानून का पालन करना चाहिए।

कानून यह है कि न्यायाधीश परिषद जिस न्यायाधीश का भी नाम कानून मंत्रालय को भेजे, उसे वह तुरंत नियुक्त करे या उसे कोई ऐतराज़ हो तो वह परिषद को बताए, लेकिन लगभग 20 नामों के प्रस्ताव लम्बे वक्त से अधर में लटके हुए हैं। न सरकार उनके नाम पर 'हाँ’ कहती है और न ही ’न’ कहती है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने उस 99 वें संविधान संशोधन को 2015 में निरस्त कर दिया था, जिसमें राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को अधिकार दिया गया था कि वह न्यायाधीशों को नियुक्त करे।
इस आयोग में सरकार की पूरी दखलंदाजी रह सकती थी। अब पिछले वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायाधीश परिषद द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए प्रस्तावित नामों पर सरकारी मोहर लगाने के लिए 3-4 माह की समय-सीमा तय कर दी थी। इस वक्त सरकार ने 20 न्यायाधीशों की नियुक्ति-प्रस्ताव वापस कर दिए हैं, उसमें एक न्यायाधीश घोषित समलैंगिक हैं और वह भी ऐसे कि जिनका भागीदार एक विदेशी नागरिक है। इसके अतिरिक्त सरकार और आम जनता को भी यह शिकायत रहती है कि ये जज परिषद अपने रिश्तेदारों और उनके मनपसंद अधिवक्ताओं को भी न्यायाधीश का ताज पहना देती है।


न्यायपालिका में भाई-भतीजावाद और करप्शन किसी न किसी तरह पनपता रहता है। न्यायाधीशों की नियुक्ति में सत्तारूढ़ नेताओं का हस्तक्षेप भी देखने को मिलता है। वे अपने मनपसंद अधिवक्ताओं को न्यायाधीश बनवाने पर अड़े रहते हैं और जो न्यायाधीश उनके पक्ष में फैसले दे देते हैं। ऐसे न्यायाधीशों को सेवा-निवृत्ति के बाद भी सौगात के रूप में राज्यपाल, उप-राष्ट्रपति, किसी आयोग का अध्यक्ष या राज्यसभा का सदस्य आदि कई पद थमा दिए जाते हैं। सरकारी दखलंदाजी के ये दुष्प्रभाव तो सबको पता हैं लेकिन यदि न्यायाधीशों की नियुक्ति भी सीधे सरकार करने लगेगी तो लोकतांत्रिक शक्ति-विभाजन के सिद्धांत के साथ​ ही संविधान की घोर अवहेलना होने लगेगी। सरकार को न्यायाधीशों की नियुक्ति पर या तो तुरंत मोहर लगानी चाहिए या न्यायाधीश परिषद के साथ बैठकर स्पष्ट संवाद करना चाहिए।

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